अंधेरा
कभी खुद को अंधेरे कमरे में खड़ा पाया है?
जंहा तुम्हारी आवाज गूंज रही हो,
और जिन दीवारों से वो टकरा के लौट रही हो,
वो नदारद हो,
ज़मीन की तरह।।
अंदर का खोखलापन और बाहर का शून्य,
जैसे मिल गए हो आपस में,
अंधेरा अमीरों की परछाईयों से सना हुआ,
और सांसें जैसे तुमको एहसास दिलाती हों,
की कर्ज़ चुकाए बिना आना जाना लगा रखा हो।।
अंधेरा,
जैसा किसी तराजू के पलड़े पे रखा हुआ,
जिसकी दूसरी तरफ रखा हो मांस का वो लोथड़ा,
जो तुम बन नही पाए,
कभी खुद को अंधेरे कमरे में खड़ा पाया है??
© Jayendra Dubey.
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