क्रांति

ये जो क्रांति की बातें तुम अपने भाषणों में लिए घूमते हो,
वो मेरे लिए महज सुबह की चाय का किस्सा है,
मेरी चौंधियाई आंखें प्रतिबिम्ब है उस उम्मीद की,
जो हर झूठे वादे को परिवर्तन की आंधी समझ अपना लेती है।।

मेरी बेवकूफी तुमपे भरोसा करना नही, 
खुद को कमजोर समझना है, 
और ये समझना है की जिस ढांचे को तुम बनाना चाहते हो, उसमे दिया जलाने को,
कतार में लग के घी मुझे ही खरीदना है,
मुझे ही चादर फैलाने से पहले तुम्हारी फैलाई झोली को छाँवदार आँचल समझना है।।

वो लट्ठेत जिनको तुमने वर्दी पहना दी है,
या यूँ कहूँ,
वो वर्दी जिनको तुमने कागजों से अपनी जमींदारी का ठेका दे दिया है,
उनका डर नही मुझको,
मुझे बस इन सर कटी उम्मीदों की तड़पन,
मेरे मोहल्लों, कस्बों को अपनी बेतरतीब ख़ून की लकीरों से बाटती दिखती हैं तो डर लगता है,
डर लगता है,
 जब रेशमी दुप्पटे से तुम आवाम को गांधारी बना,
अपने हाथों से ज़िस्म की आबरू को उछाल देते हो, 
उनकी,
जिनको हमने परिभाषाओँ से बांध दिया है,
घड़ी की सुईयों के साथ।।

ये जो इंक़लाब के किस्से सुना,
तुम सियासी रोटी सेंकते हो,
उससे डर नही लगता,
डर उस निवाले का है,
जिसको तुम छीन लेते हो सबकी जरूरत बता के।।
ये जो क्रांति की बातें तुम अपने भाषणों में लिए घूमते हो,
वो मेरे लिए महज सुबह की चाय का किस्सा है।।।

©Jayendra Dubey





Comments

Preeti Chauhan said…
Loved reading your poems, you really come out strong and sateek.
Unknown said…
Thanks, it encourages me to write more.
Unknown said…
Amazing.
Sahi likhe ho.

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