गुल्लक
जब उसने आखिरी सांस ली,
तो पीछे एक मरा शरीर और संदूक ही छोड़ा ।
शरीर को आग में सुपुर्द कर दिया गया,
और मिट्टी का वो गुल्लक निकाल कर,
संदूक को एक कोठरी में फेंक दिया।।
कुछ ही सिक्के थे तो खनक ज्यादा थी,
लेकिन चमक कम,
बरसो से बचा के रखे होंगे,
दुनिया की नज़रों से,
की कोई उनका मोल न लगा ले।।
तनख्वा से बचा लिए थे,
की कभी,
अपनी ख्वाहिशों की खरीदारी पर निकलेंगे,
पर हर फ़ीस के साथ खव्हिशें कम हो गयीं,
और ऊम्मीदे ज्यादा,
ख़ैर, गुल्लक टूट गया,
और टूटे गुल्लक के टुकड़े भी सन्दूक में दाल दिए।।
एक दवाई का खाली डब्बा था,
जिसमे अभी भी महक है,
वो भी खत्म हो जाएगी समय के साथ,
एक घड़ी है, अब बंद हो गई है,
उसका पट्टा कई बार बदला गया,
अब कांच टूट चूका है जो कभी जुड़ेगा नहीं,
दुसरो की नज़रों में आउट डेटेड है क्योंकि।
आखिरी सांस के पहले भी,
उसने दुसरो को दुआएँ दी होंगी,
क्योंकि जाने वाले की आँखों में उम्मीद थी,
की शायद ऊपरवाले ने सुन ली हो उसकी,
हाथ में पकड़ी उस किताब को भी,
लाल कपडे में बाँध, संदूक में डाल दिया,
और मूर्ति को, सिर्फ जाने वाले का रहनुमा मान,
संदूक में ही छोड़ दिया।
जलते शरीर के साथ सारे दर्द भी जल गए,
पर यादें ज़िंदा हैं,
उस छोटी काली डायरी में,
जिसमे फोन नम्बर लिखे हुए हैं,
जिसपर ज्यादातर सिर्फ घंटियां ही जवाब देती थी,
जन्मदिन की तारीखों पर आवाज़ें भी आ जाती थी,
पर अक्सर, घंटियां ही जवाब देती थी।
कोठरी में बंद सन्दूक की भी अपनी एक ज़िन्दगी है,
खोलने वाला उसको टाटोलेगा
तो जाने वाला का अक्स जरूर पाएगा।
ख़ैर, जलते शरीर के साथ अब दर्द जल चुके हैं।।
©Jayendra Dubey, 2016
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