आईना
आईनें ने कई बार आवाज़ दी,
इस उम्मीद में,
की कभी तो सुनेगा तैयार होने वाला।
सपनो को कपड़ो में लपेट कर चल देता है रोज़,
एक दिन गुज़ारने, अपने अक्स से दूर, जो शक़्स,
कभी तो अपनी परछाईं टटोलेगा,
कभी तो हटाएगा वो धूल,
जो कई परतो के नीचे ,
आज भी जिंदा रखे हुए है उस बेफिक्र बचपन को
जो अब बस तस्वीरों में बंद करके टांग दी गयी है दीवरों पे,
कभी तो देखेगा ग़ौर से,
की आँखों में प्यास के अलावा और भी बहुत कुछ है।
आवाज़ पहुँच नहीं पा रही है शायद,
आज के शोर गुल में दब गयी है,
पुरानी यादो की आवाज़ भी दबा दी है उसने,
शहर के सवालों के जवाब मे,
खो दिए हैं,
अपनों के सवालों को,
क्या क्या दिखाएगा आइना,
वो तो बस इंतेज़ार कर रहा है
की कब नज़र पड़ेगी तैयार होने वाले की
और कब झाड़ेगा वो धूल अपने दिल के पर्दो से।।।।
©Jayendra Dubey, 2016
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