कांच की गुड़िया

पिंजरे में बंद,
उम्मीद की सांस लेती,
एक नन्ही सी चिरइया।

आसमान को अपनी छोटी छोटी आँखों से घूरती,
पँखों में सपनो को दबोचे
एक नन्ही सी चिरइया।

बागबानी से बड़ी हुई
माली के डर से बंधी हुई,
कल के डर से,
आज में दम घोटी हुई
एक नन्ही सी चिरइया।

सामाजिक परिभाषाओं में बंधी हुई,
आसमान को टकटकी बाँध के देखती।
कई गिद्धों की विवेचना,
एक नन्ही सी चिरइया।

सोने के उस पिंजरे के टूटने का इंतेजार करती,
अपनी इक्षाओँ में बल भरती,
प्रतिबंधों को लांघती,
वो कांच की गुड़िया,
अपने हौसलों की उड़ान भरती,
एक नन्ही सी चिरइया।।।

©Jayendra Dubey, 2016.

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