कागज़ की नाव

सोचता हूँ,
जिस दिन ज़िन्दगी अपना हिसाब करेगी,
उस दिन, फिर से, कागज़ की नाव बनाऊंगा,
अच्छा लगता था वैसा करना,
बिना उसका फैसला सुने,
दूर निकल जाऊँगा,
ख़यालों का गुब्बारा बना के,
जैसे माँ की गोद में बनाता था,
बादल को, माँ का आँचल समझ,
ढक लूंगा मुँह को,
और नींद का बहाना बना फिर से काम को टाल दूंगा।।

सोचता हूँ,
जिस दिन ज़िन्दगी हिसाब करेगी
फिर से लुक्का छीपी खेलूंगा
किसी झाडी में,
या
किसी दीवार के पीछे छुपा रहूँगा,
चाँद ले जलने तक,
और रात के छाओं में,
फिर तारों में नया आशियाना ढूँढूंगा।।

जिस दिन ज़िन्दगी हिसाब करेगी,
सोचता हूँ
फिर से जी लूंगा,
उन लम्हो को
जो रेत से फिसल गए थे,  क्योंकि
दौड़ किसी अंजानी ओर थी,
रोक लूंगा क़दमो को,
दो चार लतीफ़े और सुनाऊंगा यारों को,
मोड़ लूंगा क़दमो को,
उस आग़ोश के पास,
जिसमे सराबोर रहना ही ज़िंदा रहना था,

सोचता हूँ,
जिस दिन ज़िन्दगी अपना हिसाब करेगी
फिर से कागज़ की नाव बनाऊंगा।।।।



© Jayendra Dubey, 2016.

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