रूह
उधड़े उन चादरों के बीच
जिस्मो को धागे सा पिरोना
याद है तुम्हे?
याद है उन लम्हो का फिसल जाना,
और ठहर जाना उंगलियों पे,
नज़रो का।
दीदार होना रूह का,
और सुलगना जिस्म का,
किसी सिरहाने बरसो के मुंतज़िर दफना,
टोहाना ख्वाबों को एक दूसरे की निगाह में,
और लबों को खामोश कर देना लबों से,
याद है तुम्हे?
उधड़े उन चादरों के बीच,
सपनो की दुनिया बसा लेना,
तारों के टुकड़े तोड़,
अपने आसमां सजा लेना,
भोर तलक जागना
याद है तुम्हे?
वो सहर की गोद में,
दफना लेना,
एक दूसरे के अक्स को,
और फिर इंतज़ार करना,
उधड़े उन चादरों के बीच,
फिर से अपनी दुनिया बसा लेने का।।
डरना, दिल ही दिल में,
कि वक़्त कंही खवाबों को झुलसा न दे,
पर लफ़्ज़ों को राज़ रख,
लबों को बाँध देना,
एक दूसरे के लबों से,
याद है तुम्हे?
©Jayendra Dubey, 2016
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