मेरे भीतर का काशी
मैं यंहा का नही था,
यंहा के ठहाकों, और चाय के कुल्हाडों,
से कोसों दूर बसे,
किसी कच्चे घर से निकला था,
बस्ते में काशी की जिंदादिल कहानी भर,
इसके घाट पे आ गया था ।।
कहतें हैं इसके घाट पे सदियों से,
कई राजों, रंकों, पंडितों, मुल्लों और वो भी जिनका ज़िक्र करना तुम पसंद नही करते,
सबने पानी पिया है,
इसी घाट ने सबको अपना लिया,
और जिन्होंने ने अपना वर्चस्व चाहा,
उसको कबीर बाबा के दोहे पढ़ नकार दिया,
पर बबुआ अब सब बदल गईल बा,
अब या तो तुम देश विरोधी हो,
या बादलों पे बैठे,
राष्ट्रवादी।।
वो दोहों में अपनेपन को ढूंढ,
विश्वनाथ बाबा की जय बोल के,
पक्ष विपक्ष दोनो को गरियाने वाला काशी,
व्हाट्सएप पे अपनी आखिरी सांस लेते हुए,
लड़ रहा है,
धर्म, सियासत, का रंगबिरंगी चश्मा लगा,
काशी ने अपनी विरासत को चूल्हे में झोक दिया है।।
जिस काशी ने पीढ़ी दर पीढ़ी कितनो को अपना लिया,
वो भी आधुनिकता के इमरजेंसी वार्ड में भर्ती हो गया है,
क्या वो काशी की भी नए सियासी कैंसर से मौत हो जाएगी,
ये तो काशी ही बता पाएगा,
क्योंकि मैं यंहा से नही था,
और मेरे भीतर का काशी तो ना जाने कब का धुँधला गया है।।
© Jayendra Dubey.
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