अस्तित्व

बस मौजूद रहना भी कितना मुश्किल हो गया है आज के समय में, ये कोई अवसाद नही है, बस शिकायत है। शिकायत है कि ना जाने कितने अलग तराजुओं पर, ना जाने कितने अलग वजनों के हिसाब से तोले जा रहे हैं जज़्बात और जिंदगी। और हाँ, उस एक फ़िल्टर की तलाश जो इस मौजूदगी को ऐसा महसूस कराये की बस यही एक शख्शियत है।

काश कि यह संवेदनायें भी छोटे रिचार्ज की तरह उपलब्ध होती। जब मन होता तो लॉगइन करके तैयार हो जाती, मुहैया कराने के लिए एहसास अपनेपन का। अब तो ऐसा लग रहा है कि खुद होना भी किसी सीली दीवार की पपड़ी की तरह झड़ रहा हो।

वो किसी ने कहा था ना कि टेढ़ी लकीर पर चलती जिंदगी सीधी लगने लगती है। मुझको लगता है कहने वाले ने टेढ़ी लकीर पर चलते आदमी की थकान के बारे में कुछ नही कहा, या कहा, पर कोई सुन भी कंहा ही रहा है? 

थकान से टूट कर तो बस लगता है कि नींद ही सुकून देगी, पर वो शिकायत वाली बात याद है ना? उम्मीद है कि नींद से या कहें कि नींद में तो शिकायत नही होती होगी अपने अस्तित्व से। 

बातों में विषाद ढूंढने का विषय नही है, बस इतनी से बात है कि एक कप चाय से भी आगे बढ़ते रहने की उम्मीद मिलती रहती है। और बाकी हैशटैग माई लाइफ माई रूल्स का चलन तो बाकी परंपरागत तरीकों की तरह कोई नया ट्रेंड ढूंढ ही लेगा पर आपका बस अस्तित्व में रहना ही आपकी शिकायत नही बननी चाहिए। 

बढ़ते रहना चाहिए - आगे या पीछे, क्या ही फरक पड़ता है। बस ठहराव को कभी-कभार गले लगा कर कह देना चाहिए कि बस इतना काफी है। छणभंगुर काया के विचारों का भी क्या ही भरोसा। 

लेटर एलीगेटर।


जयेन्द्र दुबे





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