तुम
चद्दर में तेरी सौंधी सी खुशबू,
और हथेलियों में तुम्हारे चेहरे का लम्स,
यूँ ज़िंदा है आज भी,
की जैसे तुम कंही गयी ही नही।
किरदार तुम्हारा बदस्तूर आज भी समाया है,
इस घर की हर एक ईंट में,
नीले गुम्बद के शफ़्फ़ाफ़ बादल भी कैद हैं,
खिड़कियों में टंगे पर्दो की तरह,
और बगीचे के पौधे भी जैसे तुम्हारे इंतेज़ार में तुम हो गए हों,
दालचीनी की महक भी रसोई में रह गयी है,
मानो आज़ाद ही नही हो पाए हों,
तुम्हारी तरह।
अब तुमसे जब अगली मुलाक़ात होगी,
तो बताऊंगा,
की इन चारदीवारियों से मैंने तुम्हारा बहुत ज़िक्र किया,
इन्होंने भी मुझे तुम्हारी बहुत कहानियां सुनाई,
इस घर को और मुझको,
सिर्फ तुम ही अपनी लगती थी,
तुम्हारे बाद,
हम दोनों, बस एक अजनबी से चुपचाप मौजूद रहते हैं,
और क़िस्से सुनाते हैं एक दूसरे को,
तुम्हारे।
© जयेन्द्र दुबे
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