क्रांति 3
पिछले एक हफ्ते में ऐसा हुआ कि दो कविताएँ लिखने की कोशिश करी, और दोनों ही कविताओं में बिस्मिल साहब और दुष्यंत कुमार साहब की झलक आने लगी, बहुत सोचा कि पब्लिश करूँ ब्लॉग की नही, जाने लोग इसको कैसे लेंगे फिर लगा कि जरूरी है जिनको पढ़ के बड़ा हुआ हूं तो उन्ही के शब्दों में खत्म करके अपनी बात सब तक पहुचाई जाए। तो दोनों कविताओं को अलग अलग ब्लॉगपोस्ट पे कॉपी पेस्ट मैसेज के साथ पब्लिश कर रहा हूँ।
आखिरी सूरज बुझने तक,
ये हिम्मत जिंदा रहनी चाहिये,
इंकलाब के नारों से,
ये साँसें सजनी चाहिये।।
जिनके पास लाठी है,
वो उसको ले कर आयेंगे,
सारे कायर, दीवारों पीछे छुप उसको चलवाएंगे,
हमारे घर, कमरों, में घुस घुस कर,
अखबारों से, चैनलों से,
सियासी दांव पेंच खेले जाएंगे,
तुमको, मुझको, सिर्फ कोशिश ज़िंदा रखनी है,
जिस मज़हबी गुलामी ये तुमको मुझको धकेलना चाहते हैं,
अब उसकी चिता जलनी चाहिये,
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।
© जयेन्द्र दुबे
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