क्रांति 2

पिछले एक हफ्ते में ऐसा हुआ कि दो कविताएँ लिखने की कोशिश करी, और दोनों ही कविताओं में बिस्मिल साहब और दुष्यंत कुमार साहब की झलक आने लगी, बहुत सोचा कि पब्लिश करूँ ब्लॉग की नही, जाने लोग इसको कैसे लेंगे फिर लगा कि जरूरी है जिनको पढ़ के बड़ा हुआ हूं तो उन्ही के शब्दों में खत्म करके अपनी बात सब तक पहुचाई जाए। तो दोनों कविताओं को अलग अलग ब्लॉगपोस्ट पे कॉपी पेस्ट मैसेज के साथ पब्लिश कर रहा हूँ।


दोस्त, 
ये क्रांति की बातें सब ठीक हैं,
ये बताओ, मरोगे तो जलाये जाओगे की दफनाये? 
किसी को फर्क पड़ेगा तुम्हारी मौत से?
वो जो कैंटीन की उधारी बाकी है, 
माँ बाप चुकाएंगे,
की ये खाकी वाले, जिनकी लाठियों से तुम लड़ रहे हो.
या संसद में कोई कमिटी बैठेगी?

तुम्हारे बारे में सबने अपनी राय कायम कर ली है, 
कल ही किसी ने मुझको बोला,
की ये पढ़े लिखे गँवार जाने किस बात का झंडा ले कर निकल पड़ते हैं,
ऐसा कहने वाले तुमसे सैकड़ो गुना ज्यादा हैं,
अगली शुक्रवार का इंतेज़ार उनको तुम्हारी बातों से ज्यादा है,
किसी थिएटर में उनकी भीड़ के हिस्से,
तुम्ही को सोडा पी के गरिया रहे होंगे,
क्या बदल लोगे?

मुझे माफ करना अगर मेरी निराशावादी बातें तुमको बुरी लगें,
मैं जानता हूँ इससे तुम्हारा मनोबल टूटेगा नही,
पर मैं डरा हुआ हूं तुम्हारे लिए, 
तुमको समझने वाले यंहा, कम और समझाने वाले ज्यादा हैं,
और मेरी बातों में वो वीर रस भी नही जो कडकती सर्दी में तुम्हे लाठियां खाने का मनोबल दे,
मैं ये भी जानता हूँ की तुमको फर्क नही इसका अंजाम क्या होगा,
पर मैं डरता हूँ,
की तुम्हारी हार से मेरी तरह कईओं की उम्मीद मार जाएगी,
ये उम्मीद तुम्हारी हिम्मत ने जगाई है,
जिसको हुकूमत की फिक्र नही, 
जिसको हुक्मरानों का डर नही,
और दोस्तों मैं ये भी जानता हूँ की पीछे नही हटोगे,
तो चलो मैं भी तुमसे मिल जाता हूँ,
साथ ही जल या दफन हो लेंगे,
और मायूस ज़माने में लिखेंगे हम फिर एक बार,
की खेंच कर लायी है सब को कत्ल होने की उम्मीद,
आशिकों का आज जमघट कूचा-ऐ-दिल में है।।

© Jayendra Dubey.



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