नज़रें

Pic Credit : Tribune

ये नज़रें हैं,
जो टटोल रही हैं जिस्मों को,
ये पाखण्ड है,
जो कोस रहा है कपड़ो को,
अपनी मर्यादा के परिभाषा के दलदल में फसे हुए,
घसीट रहें हैं उनको,
जो उड़ना चाहते हैं।।

ये नज़रे हैं।।

ये नज़रें हैं,
जो चौराहो पर,
बस स्टैंड पर,
महोल्लों में,
रिक्शे पर,
ढूंढ रही हैं कंहानियाँ,
जिनको, चाय संग,
सिगरेट के धुएँ के साथ,
शराब की घूँट के साथ,
और आदतन, घरों के गेट पर
सुनाया जा सके।

ये पाखंड है,
जो कोस रहा है,
दोस्तों के साथ को,
चाऊमीन को,
फिल्मी सितारों को,
और रात के चाँद को जो सूरज निगल चुका है।।

ये व्यवस्था है,
जो चल रही है,
कुछ कह भी रहे हैं की,
हकीकत बदल रही है,
नज़रे झुक चुकी हैं,
जो नही झुकी उनका इलाज चल रहा है,
मायोपिया वालो को चश्मा लग,
और मर्यादा वालों का गॉगल उतर रहा है।

पर हकीकत की ये व्यवस्था,
शाम को न्यूज़ चैनलों,
सुबह अखबारों,
दोपहर को मोहल्लों में,
विडंबना का ज़हर, सच्चाई के साथ पी के,
ख़त्म हो जाती है।।

और नज़रे टटोलती रहती हैं।

©Jayendra Dubey.

Here's an article from Hindustan Times. Do spare some time to read it. 

Comments

Popular Posts