ज़ख्म
उसकी रूह पे एक ज़ख्म था।
गहरा और लम्बा,
जो लगता तो है कि शायद वक़्त ने,
कुरेदा होगा।
भीड़ की मौजूदगी ने,
एक अँधेरे में खड़ा कर दिया है उसे,
लालच, स्वार्थ, वासना, में बंद कर
रंग बिरंगे कपड़ों में लपेट दिया है उसे,
उसके अंधेरो में शब्दों के जुगनू
खो जाते हैं।
उसकी ख़ामोशी में, सिसकियों में,
अब सिर्फ घृणा हैं,
उनके लिए
जिन्होंने उसे परिभाषाओं में बाँध दिया।
उसकी रूह अब बेचैन है,
बेड़िया तोड़ने को,
हाथ कठोर हैं,
नयी परिभाषाये लिखने को।
लगता है जिस वक़्त ने जख्म कुरेदा,
उसका बहाव बदल रहा है।
© जयेन्द्र दुबे, 2017


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