मंथन


वक़्त की परतें उतरती गयी,
और मेज़ पे किताबें बढ़ती गयी,
कई ख्याल सिर्फ आ कर रह गए,
और कलम की स्याही सूखती गयी।।

सीढ़ियों पे आवाज़ तो हुई,
पर कोई शक़्स न दिखा,
घबराहट में दिल की धड़कन तो बढ़ी,
पर किसी का अक्स न दिखा,
टकटकी बाँधी आँखें दरवाज़े को देखती रही,
और उम्मीद के साथ आँखें भी सूखती गयी।।।

रंग बिरंगे कागजों पे उँगलियाँ दौड़ती गयी,
खाली कागजों पे शब्द उतरते गए,
जिनको तस्वीरों में छुपा के रखा था,
वो एक एक कर कंही भीड़ में खोते गए,
दौड़ भी अनजानी ओर थी,
इम्तेहान दर इम्तेहान तेज़ होती गयी,
और मुलाकातों की छोटी डिबिया,
बासी अख़बार के नीचे कंही दब गयी।।

आईने में खुद का चेहरा पहचानना थोड़ा मुश्किल होता गया,
जब आँखों के नीचे का रंग काला पड़ता गया,
ज़हन की आवाज़ें भी अंजानी सी लगने लगी,
खुद की कही बातें जब बचकानी लगने लगी,
कुछ समझने का समय सा भी न मिला,
घडी की सुइयां शोर बढाती जो गयी।।।

कई ख्याल सिर्फ आ कर रह गए,
और कलम की स्याही सूखती गयी।।

© Jayendra Dubey, 2016

Comments

Khayaal aate hain jaate hain parantu insaan manthan karna nahi chhodta...
Kyunki isi manthan se he usee aasha milti hai.... "Chintan aur usper manthan" vyakti ki ek swabhavik aur Sahaj prakruti hai jisse use jivan me sangharsh karte rehne ki prerna milti hai...

Mazaa aa gaya Chote shahab...Aise he manthan kar hame apni kavitaaon se mantramugdh karte rehna...
Jayendra Dubey said…
Bhai your consistent support overwhelms me. Love you.

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