इत्तेफ़ाक़
तुमसे आखिरी मुलाकात के बाद,
कलम उठा कर कई बार तुम्हे तराशने की कोशिश करी,
आंखें मूंदे गहरी लंबी उदास साँसों के बीच,
किसी आंसू की बूंद को रोकने की चाह में,
कई बार तुम्हे पन्नो पे उतारने की कोशिश करी,
इत्तेफाक ही था तुमसे टकरा जाना,
ज़िन्दगी के कुछ पल बाटना, मुस्कुराना, सपने देखना,
इन सबको उस इत्तेफ़ाक़ के साथ ही खत्म होना था,
पर जाने कैसे मेरी रूह ने तुम्हारे अक्स का रूप ले लिया...
आज वही रूह क़ैद है कल्पना में तुम्हारी ,
अस्थियों के पिंजरे में फसी ये जान,
अब सिर्फ यादो से लिपट के रह गयी हैं,
यादें जो बेबस है, शब्दों से कोसो दूर...
अब ये यादें रूह के साथ ही खत्म होंगी,
पर सब का कहना है,
रूह कंहा खत्म होती है,
वो तो अपने मांझी जा के मिल जाती है,
मेरी रूह भी यकीनन तुमसे मिल जाएगी,
और वो कोई इत्तेफ़ाक़ नहीं होगा,
और तब शब्द होंगे पन्नो पर, तुम्हारी यादों में सरमाये हुए!!
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