शहर
मेरे सामने से रोज़ एक शहर गुज़रता है,
किसी हरी बत्ती का मोहताज़ नही है ये,
गलियों में, सड़कों पे, किसी चाय वाले की दुकान पे,
इसका ठीकाना बनता, बिगड़ता, बदलता रहता है।।
ये शहर बहुत तेजी से निगल गया उसको,
जो पीछे रुक के किसी का इंतेज़ार कर रहा था,
ये दौड़ रहा है,
ज़ेहन में क़ैद खून से भी तेज़,
इसका आकर किसी कैंसर की तरह बड़ा हो गया है,
और काई सी लगी सरहदों पे मौज़ूद हैं तो वो कस्बा,
जो शहर की तरफ दौड़ रहा है,
उसको भी हिस्सा बनना है,
उसको भी सहज बनना है,
मैं, तुम इसके सामने बहुत छोटे हैं।।
इस शहर से रिश्ता भी बना के भी कुछ हासिल नही होगा,
तुम्हारी पसंद की दुकान को शोरूम,
और घर को मेट्रो लाइन,
निगल जाएंगे,
और किसी बरसों पुराने पेड़ की तरह तुमको दे दी जाएगी,
एक फुट नई ज़मीन,
जिसकी कई मंज़िल उचाई पे तुमको अपना नया सच मिलेगा,
और दिखेगा खिड़की से गुज़रता एक नया शहर।।।
©Jayendra Dubey.
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