अतीत
मैं कहीं बहुत दूर खड़ा हूँ,
आज से दूर,
अतीत में।
जहाँ शामें अब भी अधजगी हैं,
जहाँ हवा में घुली हैं कुछ पुरानी बातें,
जहाँ की कदमों की आहट
अब भी कानों में गूँजती है।
जहाँ इक पुराना पेड़ खड़ा है,
जिसकी शाखों पर लटके हैं लम्हे,
सूखे पत्तों की तरह
झड़ते, बिखरते।
मैं किसी भूली हुई गली में
खुद को ढूँढता फिर रहा हूँ,
जहाँ यादों के दरवाजे खुले हैं,
पर कोई लौटकर नहीं आता।
शायद ये वक़्त का कोई खेल है,
या मेरी ही कोई सजा,
कि मैं आगे बढ़ जाऊँ,
तो भी कहीं पीछे रह जाता हूँ।
Jayendra Dubey ©
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