मुर्दा शहर

अब और क्या कहूँ,
कुछ सच को ताले में ही दम तोड़ना होता है,
और कुछ झूठ को बनना होता है हमसफर,
बेबाकी को रख लेना होता है,
खामोशी से ज़ेहन में,
और शहर के हिस्से में सिर्फ शोर होता है।

तुम सोचोगे की ये कैसी बात है?
और जवाब होगा,
की ये मरते ज़मीर के जज़्बात हैं।
मौत जिसने जिंदगी और जिंदादिली को निगल लिया है,
और उड़ेल दी है मिसालें खोखलेपन की,
इस खोखलेपन में गूंज रहा है झूठ का शोर,
और यही शोर इस मुर्दे शहर का सच होता है।

अब और क्या कहूँ?

©जयेंद्र दुबे

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