ठहराव
जंहा से चले थे,
फिर वंही आ गये,
अलग अलग लफ़्ज़ों में,
कैसे बांधे अकेलेपन को,
फिर उसी सवाल पे आ गए।।
सुना था दुनिया बंधी हुई है नियमों से,
सुबह के बाद रात,
और रात के बाद सुबह,
फिर कैसे रात से चल के रात पे ही ठहर गए।।
जनता था,
की साथ हमेशा का नही था,
फिर क्यों इन धड़कनो में तुम ठहर गए।।
ये समय तो रेत था,
इसका काम तो बहते रहना था,
फिर कैसे घड़ी के कांटे ठहर गये।।
जंहा से चले थे फिर वंही आ गये,
मंज़िलों को खो के,
ये रास्ते जाने क्यों ठहर गए...।।
© जयेन्द्र दुबे
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