फूल और राख


क्या आज भी वो गुलदस्ता तुम्हारे पास है,
जो मैं ले आया था उस आखिरी रात,
ये सोच के,
की मैं नही तो उन फूलों की खुश्बू रहेगी साथ तुम्हारे,
या उनकी महक भी ख़त्म हो गयी,
रिश्ते की तरह।। 

जैसे उन ख़तों को तुमने डायरी में सम्हाल के रखा था,
क्या वैसे ही,
आज भी वो मुरझाय फूल उन खतों का साथ दे रहे हैं,
या वो डायरी किसी रद्दी के ढेर का वजन बढ़ा रही है,
और वो मुरझाये फूल उन्ही ख़तों में लपेट के किसी किनारे कर दिये,
शायद खुद ही झुलस गए होंगे वो खत्म हुए रिश्ते की आग से, 
या रह गयी है उस आखिरी मुलाकात की याद,
जिसमे मैं आखिरी बार तुम्हारे लिए गुलदस्ता लाया था।।।

© जयेन्द्र दुबे

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