घास के दोने
आज सोचा की एक कविता लिखूं,
लिखूं,
की कैसे ओस को घास के दोनो में पकड़ने की कोशिश करी।
कैसे किरणों को,
पगडण्डी किनारे बैठ,
उन्हें समेट कर,
शब्दों की तस्वीर बनाने की कोशिश करी।
आज सोचा की एक कविता लिखूं,
रात के सन्नाटों में,
धड़कनो को उतारूं,
किसी रंग की तरह सफ़ेद पन्ने पे,
की उसपे तेरा चेहरा उभर आये,
जिन बातों को कहने के लिए,
वक़्त का बंजारा बना हुआ हूँ,
वो खुद ब खुद तू समझ जाए,
आज सोचा की एक कविता लिखूं,
लिखूं,
की कैसे, शहर में लोगो ने नज़रे गडा के रखीं हैं,
की कैसे,फुसफुसाहटों की सरहदों को पार करने की कोशिश करी।
की कैसे, हर शक़्स ने चाय की चुस्की के साथ, मोहब्बत की हर कोशिश बदनाम करी।
आज सोचा की एक कविता लिखूँ।।
© Jayendra Dubey
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