राहें



कितनी अलग हो जाती हैं राहें,
अक्सर दो मुलाकातों के बीच,
उम्मीदें भी अलग होती हैं,
ख़यालों की तरह,

कभी जो सपने देखे थे,
जीने को उनको,
खुद ही निकल लेते है,
बस्ते में, कपड़े और,
बासी यादेँ भर के,

कितनी अलग हो जाती हैं,
कोशिशें दो मुलाकातों के बीच,
की अक्सर आईना भी पहचान नही पाता,
उन आखों को, जिनमे वक़्त देखा था गुजरते हुए,

कितनी अलग हो जाती हैं बातें,
दो मुलाकातों के बीच,
जो कहानियां सोची थी,
की बुन लेंगे,
वो लगती हैं जैसे, बादल चांद निगलते हुए...

ऊम्मीदे भी अलग हो जाती हैं,
ख्यालों की तरह।

©Jayendra Dubey. 

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