मुलाक़ातें
लद गए वो ज़माने,
जब तुम मैं मिलते थे,
चोरी चोरी,
गिलहरी की तरह सिमटे हुए।
अब तो भीड़ है, शोर है,
औरों की तजवीज़ है!
उथल पुथल हुई क्यारियां हैं,
टूटे गमले हैं,
ओस की ठहरी हुई बूँद है,
जिसे हवा कभी भी गिरा देगी।
फिर भी उसके ठहरने की उम्मीद है,
अब तो भीड़ है, शोर है,
औरों की तजवीज़ है।।
जिस गलियारे में कभी उँगलियाँ टटोली थी,
वंहा अब धूल बिखरी हुई है,
शायद यादों को छूने की कोशिश करी गयी है,
तभी कुछ क़दमों के निशान ताज़े हैं,
वरना कंहा अब पहली सी मुलाकातें हैं,
अब तो बिखरे गलियारों में सिर्फ सन्नाटे हैं,
और धूल जिसमे कुछ निशान ताजे हैं,
लद गए वो ज़माने,
जब तुम मैं मिलते थे।।।
खिड़कियों से अंदर आती धूप,
अब किसी जिस्म पे नहीं पड़ती,
मेज़ों के कोने से होती,
ज़मीन पे बिखर जाती है,
दरवाज़े किसी की दस्तक के इंतज़ार में,
आधे खुले छोड़े हुए हैं,
कँहा अब पहली सी मुलाकातें होती हैं।।।
© Jayendra Dubey, 2016



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