दस्तक
यादों की पोटली वक़्त रहते बाँध लो,
क्या पता किस दस्तक के साथ रवानगी का पल आ जाए.
छेड़ लो दो चार नग्मे जो बच गए हो,
क्या पता कब ख़ामोशी छा जाए!
आदतें बदल लो कंही वो मज़बूरी में न बदल जाएं,
दो पल का साथ है, आओ गम बांट लो,
क्या पता कब इम्तेहान-इ-ज़िन्दगी का दौर शुरू हो जाए!
झाड़ते ही हो जो रेत को,
तो एक आखरी दफे कदमो के निशाँ भी देख लो,
क्या पता कब आखिरी बरसात हो जाए!
अब चल जो दिए हो अंजाम की ओर,
तो डरना क्यों,
चलते चलते एक आखिरी किस्सा और सुना लो,
इस आखिरी मुलाक़ात को एहसास का विराम दो,
और यादों की पोटली वक़्त रहते बाँध लो...!!!
© Jayendra Dubey, 2016


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