तमाशा



रुक के देखने वाले भी,
जुड़े हैं तमाशे से,
डमरू की हर चोट पे,
वो हसते हैं, वो रोते हैं,
फिर भीड़ का हिस्सा बन,
मिल जाते हैं बड़े तमाशे में।

खाली जेब,
सपनो के खण्डहर,
कमज़ोर फेफड़े,
और वो थकान जो शरीर में है,
पर चेहरे पर नहीं,
इस भीड़ की पहचान है।

इस भीड़ की आवाज़ दबा दी है,
बातूनी कुर्सियों ने,
नारों में लहराते लाल हरे नीले झंडों ने,
और थोड़ी बहुत समझ पर,
ग्रहण लगा दिया अफवाहों ने,

शहर को चमका दिया है,
की टेलीविज़न पे सब चकाचोंध दिखे,
और बिखेर दिए हैं मुहावरे,
हर ज़बान पे,
की बात करने वाला सबसे हुशियार लगे,
तमाशा देखने वाला,
विचारों की आज़ादी में क़ैद है।
और हर काले मन की पोशाक
सफ़ेद है।

तमाशा रोज़ का है,
और भीड़ की आदत का हिस्सा भी,
सच्चाई शायद समझ आती भी है कुछ को,
पर उल्लू सीधा करने में,
जो मज़ा है,
वो किसी क्रांति में कँहा?
कहेंगे व्यवस्था चरमरा गई,
फिर दीवार को पीक से लाल रंग,
जनतंत्र बन जाएंगे।
और खो जाएंगे फिर से जरूरतों में,
तमाशे का हिस्सा बन के,
क्योंकि,
रुक के देखने वाले भी जुड़े हैं तमाशे से।

© Jayendra Dubey.

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