संलाप

बातों का क्या है,
देर तलक चलती रहेंगी,
उजाले अँधेरे ने कंहा फर्क डाला है इनपे,
ख्वाइशों की आजमाइश ही तो है,
की दो शक़्स की महफ़िल में भी ये जगमगाती रहती है,
चलती रहती है,
सुबहों से शाम तलक।

कभी कभी ख़ामोशी में भी हो जाती है,
कभी कभी अल्फ़ाज़ों की तलाश में रह जाती है,
इनके मुक्कदर में भी जाने क्या है,
कभी आँखों से झलकती है,
तो कभी छलकती है,
और कभी कभी रुंध कर हलक में रह जाती है।।

कभी गलियों में, नुक्कड़ों पे,
कंही टहनियों पर,
कभी ठिठुरती सर्द हवाओं मे मूँफली के दानो के संग,
तो कंही जाम में गहरी डूबी हुई,
ये बातें ढूंढती हैं तो सिर्फ ज़रिया
की हो जाए गर उससे
जो बेहद करीब है दिल के
तो इसे भी इरादे मिलें
वरना बातों का क्या है,
बेमतलब भी चलती रहती हैं।।

© Jayendra Dubey, 2017

Comments

बात-बात में हर बात में तेरी बात का आ जाना
अच्छा लगता है यूँ तेरा
दिलो - दिमाग पे छा जाना...
Jayendra Dubey said…
Kabhi humse bhi baat karao jinki baat KAR Rahe ho bhaijaan!! ;)
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